आत्महत्या रोकथाम में हमारा दायित्व: डॉ सुषमा तलेसरा

 आत्महत्या रोकथाम में हमारा दायित्व: डॉ सुषमा तलेसरा

कोटा के कोचिंग संस्थानों में छात्रों द्वारा आत्महत्या के बढ़ते मामलों के बाद आत्महत्या जैसे विचारों से बचने के प्रयासों पर चर्चा तेज हो गई है, जो बेहद आवश्यक भी है। आत्महत्या करने वाले छात्र ही नहीं, हर उम्र के लोग अलग-अलग वजह से अपने जीवन को समाप्त करते हैं या करने का विचार करते हैं ,जिनमें मुख्य कारण प्रेम प्रसंग में असफलता या परिवार का विरोध, बेरोजगारी, कर्ज, बीमारी ,प्रिय व्यक्ति का असमय दुनिया से चले जाना आदि।

छात्रों द्वारा आत्महत्या का प्रमुख कारण पढ़ाई का दबाव, साथियों की तुलना में पीछे रह जाना, माता-पिता की थोपी आकांक्षाएं , विषय में रुचि  का ना होना है, अध्यापकों का दबाव आदि।

हर बालक में कोई ना कोई विशिष्टता होती है, जरूरत है उनके टैलेंट को पहचानने की। बालक के टैलेंट को नजर अंदाज कर माता-पिता अपनी आकांक्षाएं बालक पर थोपने का प्रयास करते हैं। हर बालक इंजीनियर या डॉक्टर या वकील बनने की क्षमता नहीं रखता है। देश दुनिया में अच्छे संगीतज्ञ , चित्रकार, लेखक, रचनाकार, कृषक, अध्यापक, खिलाड़ी ऐसे सैकड़ो तरह के लोगों की आवश्यकता है।

हम बालक को उसकी योग्यता अनुसार आगे बढ़ने दें तो उनका जीवन आनंदमय बना सकता है। हमें व्हाइट कॉलर जॉब का मोह छोड़ना पड़ेगा। छात्रों की आत्महत्या मामले में माता-पिता भी जिम्मेदार हैं। बार-बार यह शब्द की “तुम्हारे कोचिंग पर बड़ी राशि लगाई है, मेहनत करना, साथियों से बातों में समय बर्बाद मत करना, तुम्हें अपने दोस्त से आगे निकलना है “।बालक को ये वाक्य प्रेरित करने की बजाय निराशा के घोर अंधेरे में धकेल देते हैं, जहां पढ़ाई के दबाव के सिवा उसे कुछ भी नजर नहीं आता है।

यहां एक बात पर गौर करने की आवश्यकता है कि निराशा के कारण पहले भी होते थे जीवन में संघर्ष आज की तुलना में पहले अधिक थे पर बच्चों को बचपन से ही संघर्ष हेतु तैयार किया जाता था। आज बच्चे अति सुरक्षा में बड़े हो रहे हैं। उन्हें संघर्ष का सामना करने के अवसर अल्प मिल रहे हैं।ऐसे में थोड़े से तनाव में ही, निराशा में डूब जाते हैं व टूट जाता हैं।

निश्चित ही कोई कितना ही संपन्न क्यों ना हो बालक को भविष्य के लिए मजबूत बनाने के लिए संघर्ष के अवसर प्रदान करना आवश्यक है,  उल्लास व निराशा के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। माता-पिता को बचपन से ही तनाव प्रबंधन भी सीखना चाहिए। आज कई माता-पिता ऐसे हैं जो बालक के तनावपूर्ण क्षणों को और तनाव ग्रस्त बनाने की भूमिका में रहते हैं। कम अंक आने अथवा असफल होने पर डांटने की बजाय  उस वक्त संबल देने की जरूरत होती है।

हम सब की भी जिम्मेदारी है

परिजनों, संगी- साथियों, अध्यापकों, नियोक्ताओं,  पड़ोसियों सब की भी कुछ जिम्मेदारी है। जब हम किसी व्यक्ति के व्यवहार में अचानक बदलाव देखते हैं जैसे किसी व्यक्ति का अचानक बहुत कम बोलना, अकेले रहना, कमरा बंद कर बैठे रहना, उदास रहना, मनोरंजन से दूरी बना लेना, चिड़चिड़ापन, नींद व भोजन में अनियमितता, कार्यों में अनियमितता ऐसे कुछ लक्षण दृष्टिगत होने पर हमारा दायित्व है कि उनके मन की पीड़ा या परेशानियों को हम जानें।

किसी व्यक्ति की पीड़ा ध्यानपूर्वक सुन लेना आधा मर्ज ठीक कर देता है। हमें इन लक्षणों को देखने के बाद यह नहीं सोचना चाहिए कि यह किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। स्थिति अगर बहुत निराशाजनक है तो माता-पिता को तुरंत सूचित करें।माता-पिता ऐसी स्थिति में मनोचिकित्सक की राय लें। माता-पिता को भी अपना व्यवहार अत्यधिक कठोर रखने से बचना चाहिए।

किसी व्यक्ति की परेशानी, तनाव  या पीड़ा साझा हो जाए तो आत्महत्या जैसे कठोर विचार स्वतः ही धूमल हो जाएंगे। ऐसे विचार कुछ क्षण के लिए आते हैं, जब घोर निराशा मन पर हावी हो जाती है। बस ऐसे क्षणों से व्यक्ति को बचाना है।

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sushma talesra

डॉ सुषमा तलेसरा

 मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षाविद्

पूर्व प्राचार्य, विद्या भवन शिक्षक महाविद्यालय उदयपुर

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