22 अप्रेल – विश्व पृथ्वी दिवस -प्लास्टिक बनाम पृथ्वी
पृथ्वी की बिगड़ती सेहत के साथ ‘विश्व पृथ्वी दिवस ‘की महत्ता प्रति वर्ष बढ़ रही है हालांकि अभी भी हम गहन निद्रा में हैं। भौतिकवादी- उपभोग वादी संस्कृति के ऐसे नशे में चूर हैं कि हमें आने वाली पीढ़ी के लिए यह पृथ्वी सुखद आंचल दे सके शायद इसकी परवाह नहीं है। विकास आवश्यक है पर ऐसे विकास पर जोर दिया जाना चाहिए जो आने वाली पीढ़ी के लिए सुखद संसार छोड़ सके।
पृथ्वी की सेहत के लिए प्रतिवर्ष ( 22 अप्रेल) कई अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न होते हैं। कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं परंतु उनका असर धरातल पर अल्प ही नजर आता है। पृथ्वी की सेहत इतनी बिगड़ चुकी है की सारे के सारे प्रयास किसी सागर में बूंद के बराबर हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हर एक व्यक्ति जागरूक होकर पृथ्वी की सेहत की रक्षा हेतु कदम उठाए।
पृथ्वी ऐसा एकमात्र ग्रह है जहां जीवन संभव है फिर भी इस सुंदर पृथ्वी को हमने कूड़ा दान बना कर रख दिया है सागर, नदियां, तालाब, जमीन कुछ भी स्वच्छ नहीं रहा है।
हाल ही में 30 मार्च को अंतरराष्ट्रीय शून्य कचरा दिवस मनाया गया। चर्चा, वार्ता, भाषण सब कुछ हुए, बस कचरा शून्य तो क्या कम भी नहीं हुआ। वास्तविकता यह है कि जिसे कचरा मानकर फेंक रहे हैं, अधिकांश का सदुपयोग किया जा सकता है। गीला कचरा पशुओं के लिए भोजन हो सकता है अथवा जैविक खाद बनाई जा सकती है।
‘यूज़ एंड थ्रो’ संस्कृति पृथ्वी की सबसे बड़ीदुश्मन है। इसके माध्यम से सर्वाधिक प्लास्टिक वेस्ट उत्पन्न हो रहा है जो जमीन व समुद्र में समा रहा है। समुद्री जीव माइक्रो प्लास्टिक खा रहे हैं और अप्रत्यक्ष रूप से वह मनुष्य के शरीर में पहुंच रहा है। पशु प्लास्टिक खा रहे हैं, दूध व मांस के माध्यम से माइक्रो प्लास्टिक शरीर में पहुंच रहा है। अर्थात हम स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। कई शोधों से यह प्रमाणित हो चुका है की प्लास्टिक उपयोग से 52 प्रकार के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
एक समय था जब व्यक्ति यात्रा के दौरान अपनी मिट्टी की सुराही लेकर चलता था। आजकल हर कहीं प्लास्टिक बोतलों में पानी उपलब्ध हो जाता है, यह भी शोध से ज्ञात हुआ है कि एक लीटर पानी की बोतल में 1000 माइक्रो प्लास्टिक पाए गए जो शरीर में प्रवेश कर रोगों का कारण बनते हैं। प्लास्टिक की बोतल में पानी जितने ज्यादा समय तक रहता है उतना माइक्रो प्लास्टिक बढ़ता चला जाता है। पहले दूध, शर्बत आदि कांच की बोतल में विक्रय होते थे, आज विक्रय होते यह सब प्लास्टिक में आ रहे हैं। सुविधा भोगी जीवन शैली ने हमें विकट मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है।
कुछ वर्षों पहले तक प्लास्टिक के पुनर्चक्रण पर जोर दिया जा रहा था पर अब इस विचार को खारिज कर दिया गया है क्योंकि पुनर्चक्रण समाधान नहीं है, यह प्रदूषण को बढ़ाता है। सड़क के डामरीकरण में वेस्ट प्लास्टिक से मजबूत सड़कों का निर्माण का सफल प्रयोग हुआ पर ऐसी सड़कों पर वायु में माइक्रो प्लास्टिक कण अत्यधिक पाए गए जो यातायात साधनों के घर्षण से उड़कर वायु में पहुंच गए। प्लास्टिक पुनर्चक्रण से बनी बाल्टी, टब, कुर्सी आदि के निर्माण में अत्यधिक जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने ऐसे प्लास्टिक के निर्माण में सफलता प्राप्त की है जो बायोडिग्रेडेबल है।
सारी समस्या का समाधान यही है कि प्रत्येक नागरिक इस गंभीर विषय के प्रति सचेत होकर अपने आदतों में परिवर्तन के लिए कदम उठाए। घर से निकलते समय थरमस में पानी लेकर निकला जा सकता है। इससे प्लास्टिक की पानी की बोतल या प्लास्टिक के गिलास में पानी का सेवन कर फेंकने की आदत पर स्वत लगाम लग जाएगी।
यह कौन सी आधुनिकता है जब घर में भी हम अतिथि को प्लास्टिक की बोतल में पानी सर्व करते हैं। स्कूटर, कार या पर्स में कपड़े का पतला थेला हमेशा रखा जा सकता है। सब्जी खरीदते वक्त कपड़े के थेले में सब्जी लें,प्लास्टिक की थैली को आसानी से छोड़ा जा सकता है। हम अपने हित के लिए ही सही प्लास्टिक को ना कहने की आदत डालें । लोगों को भी जागरूक करें।
प्रशासन को भी सख्ती दिखाने की आवश्यकता है, सप्ताह भर के आंदोलन से कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है। चलिए हम 1 दिन के संकल्प से शुरू करें, प्लास्टिक का न्यूनतम प्रयोग कर इस पृथ्वी के लिए कदम उठाए। कुछ संतोष मिले तो दूसरे दिन भी थोड़ा प्रयास करें। आदत एकदम नहीं बदलेगी, धीरे-धीरे परिवर्तन के लिए स्वयं को तैयार करें।
प्रोफेसर (डॉक्टर) सुषमा तलेसरा (पूर्व प्राचार्य) शिक्षाविद एवं पर्यावरण प्रेमी उदयपुर