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कोरोना का पता नहीं, पर क्या लॉकडाउन का अंत होना चाहिए ?

 कोरोना का पता नहीं, पर क्या लॉकडाउन का अंत होना चाहिए ?

कोई नहीं भूल सकता 24 मार्च 2020 का दिन जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए पूरे देश में 21 दिन के पूर्ण लॉक डाउन की घोषणा की थी. कोरोना के साथ जिंदगी की जंग करते हुए अब लगभग दो साल होने वाले है और आज भी जंग जारी है, दोनों वेक्सिन लगा कर भी कोरोना से बच नहीं पा रहे है…पर कब तक? क्या इसका कोई अंत है? यदि है तो कौन जीतेगा अंत में? हम या कोरोना?

या दोनों ही इसी तरह साथ-साथ जीते मरते रहेंगे? जैसे मलेरिया, कोलेरा, चिकनगुनिया, डेंगू, वायरल आदि. हम समझे न समझे, माने न माने पर कुछ देशो की सरकारे यह मान चुकी है कि कोरोना के साथ ही जीना है.

स्पेन इस पर पहल करने वाला पहला यूरोपीय देश है. स्पेनिश सरकार कोरोना को पैनडेमिक की जगह अब “एंडेमिक” मानने वाली है एंडेमिक यानी कभी न खत्म होने वाली बीमारी. इसी तर्ज पर बेल्जियम, आयरलैंड और चेक गणराज्य भी अपने नागरिको को वेक्सिनेशन, होम आईसोलेशन आदि में अब ज्यादा छूट दे रहे है. शायद इन्हें यह अनुभूति हो गई है कि लॉकडाउन से कोरोना तो नहीं पर आम आदमी की आर्थिक और मानसिक समस्या ज्यादा विनाशकारी साबित होने लगेगी…या होने लगी है ?

शायद दुनिया का हर विकसित और विकासशील देश कोरोना के साथ साथ बढ़ते अपराध, मानसिक तनाव, स्कूल बंद होने से बच्चो की अनियमित दिनचर्या, असंतुलित व्यापार, अस्थायी नौकरी बेरोज़गारी जैसे कुप्रभावो से झुज रहा है.

पर इन सब में भारत की बात करे तो मीडिया के ज़रिये एक बार फिर कोरोना की भयावह तस्वीर दिखयी जा रही है…तीसरी वेव पीक पर है, केरल डरा रहा है, महाराष्ट्र में कोरोना तांडव कर रहा है. वहीँ दूसरी ओर बढ़ते कोरोना ग्राफ में भी कुछ राज्य की सरकारे कर्फ्यू और विवाह समरोह जैसे कार्यक्रमों में छूट दे रही है, जैसे हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा जारी की गई नई गाइडलाइन जिसमे विवाह में 50 की जगह 100 लोगो की अनुमति होगी और वीकेंड कर्फ्यू सिर्फ शहरी क्षेत्र में लागू होगा.

जब स्थित इतनी भयावह है तो छूट क्यूँ ? बात समझ में नहीं आती, पर यह ज़रूर समझ में आता है कि अब सरकारे और प्रशासन भी कोरोना के आगे हथियार डालने की मंशा बना रहे है. इंडिया टुडे में छपे एक आर्टिकल की माने तो 11 मार्च तक ओमिक्रोंन, डेल्टा वेरिएंट की जगह ले सकता है और यदि ऐसा होता है तो कोरोना भारत में भी इंडेमिक की श्रेणी में होगा. फिर जीना मरना कोरोना के साथ ही होगा.

सच्चाई यह है कि किसी के भी हाथ में कुछ नहीं है सरकार लॉक डाउन लगा सकती है और हम सिवाय “वेट एंड वाच” के कुछ नहीं कर सकते.

हो सकता है आप मुझसे असहमत हो और कहे कि कोरोना से जीवन को बचाने के लिए ही सख्ती की जाती है, पर क्या वास्तव में कोरोना इतना घातक है? जैसा worldometer वेबसाइट पर देश में कोरोना के आंकड़े बताते है कि अब तक कुल 38563632 पॉजिटिव केस में से 36047823 पूरी तरह रिकवर हुए है और 488422 मौतें हुई है यानी 99% स्वस्थ और 1% मौत.

हो सकता है कि आंकड़े भी सही न हो पर क्या आपकी हमारी दुर्दशा के लिए भी कोई प्रमाण चाहिए?

क्या इस बात के लिए भी प्रमाण चाहिए कि देश की जनसँख्या का आधे से ज्यादा हिस्सा मिडल क्लास है जिसके दो वक़्त की दाल रोटी संघर्ष के खून पसीने से आती है? फिर उसके उपर दिल और दुखता है जब सरकारे, राजनेता और उनकी राजनेतिक पार्टियां अपने राजनेतिक फायदे के लिए भीड़ इक्खट्टी करते है, रेलियाँ निकालते है और जनता चौराहे पर लॉकडाउन के दिशा निर्देश नहीं मानने के चालान कटवाती है.

जनता को फर्क नहीं पड़ता कि मीडिया और सरकारे क्या सोचते है, पर मीडिया और सरकारों को फर्क पड़ना चाहिए की आम जनता क्या सोचती है, कोरोना के आंकड़े बताने से आप समस्या बता रहे हो समाधान नहीं, क्यूंकि समाधान किसी के पास नहीं है.

पर क्या जीवन को बचाने के लिए जीना छोड़ देना चाहिए? या जीने का तरीका बदल देना चाहिए? जब कोरोना नित नए वैरिएंट में बदल जाता है तो हम क्यूँ नहीं बदलते – लॉक डाउन, कर्फ्यू, आरटीपीसीआर, वेक्सीन, बूस्टर डोज़…फिर से वेक्सीन ? यानी संक्रमण – वेक्सीन – संक्रमण – वेक्सीन – लॉक डाउन – अनलोक – गाइड लाइन – कर्फ्यू?

आखिर कब तक?

कोरोना पर विजय की झूठी दिलासा से बेहतर होगा कोरोना से समजौता कर लिया जाए….हमें अपने जीना का वैरिएंट बदलना होगा वरना कहीं यह जीवन आजीवन के लिए लॉक – डाउन न हो जाए

इस लेख में व्यक्त किये गए विचार लेखक के अपने निजी है, यह इस न्यूज़ पोर्टल के विचारो और सिद्धांतो को प्रतिबिंबित करे यह ज़रूरी नहीं.

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